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विश्व महिला दिवस स्पेशल: यह दुनिया नहीं मेरे पास तो क्या, ऐ मेरा गुरुर है के मेरे पास तुम हो ...


विश्व महिला दिवस स्पेशल: यह दुनिया नहीं मेरे पास तो क्या, ऐ मेरा गुरुर है के मेरे पास तुम हो ...
विश्व महिला दिवस स्पेशल: यह दुनिया नहीं मेरे पास तो क्या, ऐ मेरा गुरुर है के मेरे पास तुम हो ...
15-03-23 08:09:03         sourabh tripathi


विश्व महिला दिवस 2023 (08 मार्च से 14 मार्च) सप्ताह के समापन के मौके पर खास पेशकश

यह दुनियाॅं नहीं है मेरे पास तो क्या, ऐ मेरा गुरूर है के मेरे पास तुम हो.........!

(सुरेंद्र वर्मा, शगुफ़्ता परवीन)

    इशिका नाम है मेरा, छत्तीसगढ़ से हूं। मां सुलोचना गृहणी है, पिता शशिकांत थवाईत एक छोटे कामकाजी हैं। जैसा कि हरेक के लाईफ में एक ऐसा समय आता है, जहां से काफी कुछ बदल जाता है वैसा ही मेरी जिंदगी में भी यह समय काफी जल्दी आया।मैं तब महज 14 साल की थी, और एक बीमारी ने काफी कुछ बदल दिया। मेरी जिंदगी काफी अच्छी रही भगवान की कृपा से रूपरंग भी अच्छा था, पढ़ने लिखने में भी काफी अच्छी थी, अच्छा परिवार था। उस समय मैं रायगढ़ के कार्मेल स्कूल में 11वीं गणित की छा़त्रा थी इसी साल मुझे स्कूल केबिनेट में भी मेंबर बनने का म़ौका मिला था सब कुछ सही चल रहा था। फिर 16 अगस्त 2012 की रात अचानक ही मेरे कंधे में दर्द उठा और सुबह तक सीने में हल्की सी सूजन थी लगा कि नस की कोई तकलीफ होगी, कुछ दिनों में ठीक हो जाएगी। पर देखते देखते यह तकलीफ बढ़ने लगी और इतनी बढ़ गई कि उठना बंद हो गया सीने का सूजन भी काफी बढ़ गया था और कंधे व सीने के दर्द के कारण बिस्तर पर लेटना भी नहीं हो पाता था। दिन में दर्द की 4-5 गोलियां खानी पड़ती थी। इधर हास्पिटलों का चक्कर शुरू हुआ, महिने भर तो रायगढ़ में ही इलाज ही चला मगर जब तबियत में कोई सुधार नहीं दिखा तब आगे के इलाज के लिए मुझे रायपुर ले जाया गया। यहां भी 4-5 हाॅस्पिटलों का चक्कर लगाये, फिर दो महिने तक ऐसे ही चलता रहा लगभग 23-25 अलग अलग टेस्ट और दो बाॅयोप्सी के बाद पता चला कि लिफोंमा एनएचएल कैंसर हो गया है। मुझसे काफी दिनों तक यह बात छुपाई गई यह सोचकर कि शायद मैं घबरा जाउंगी मगर अपनी मम्मी जी हालत देखकर मुझे इतना तो पता चल गया था कि कोई बड़ी बात ही है। पापा और बाक़ी सब तो खुद को मजबूत दिखा लेते थे पर मम्मी बहुत कोशिश के बाद भी कमजोर पड़ जाती थी, मुझे यह बात मेरे डाॅक्टर ने बताए और यह जानकर मुझे कैंसर हो गया है, घबराना या डरना तो दूर की बात मुझे कोई फर्क भी नहीं पड़ा यह सोचकर कर इलाज हो जाएगा और मैं ठीक हो जाउंगी यही चीज अपने घरवालों को भी समझाती थी, उपर वाले की कृपा से मुझमें इतना आत्मबल था कि शरीर बहुत कमजोर हुआ मगर मैं कमजोर नहीं हुई। जहां आज के समय में रिश्तों का टूटना, परिवारों का टूटना, मनमुटाव होना घर-घर की बात हो गई है, वहीं वह समय भी याद आता है कि जब मैं यह सब से गुजर रही थी, जब बाॅयोप्सी के बाद आॅपरेशन थियेटर से निकली तब मेरा पूरा परिवार बाहर खड़ा था हाॅलाकि मैं आधे होश में थी मगर यह दृश्य मैं आज तक नहीं भूली हूं। मेरा यह परिवार ही था जो मेरी मम्मी पापा की ताकत था पर मेरे लिए वह समय जितना मुश्किल था उससे कहीं ज्यादा मुश्किल वह समय मेरे मम्मी पापा के लिए भी था, क्योंकि अपनी औलाद को तकलीफ में देखने से मां-बाप के लिए दूसरा कोई भी तकलीफ बड़ा नहीं होता । हर किसी ने उस समयको पार करने में हमारी हर तरह से (आर्थिक, मानसिक) काफी मदद की । फिर निर्णय लिया गया कि आगे का इलाज मुंबई के टाटा मेमोरियल मंे कराया जाएगा। उम्र कम थी मगर मैं यह बात मैं समझ गई कि विपरीत परिस्थितियों में परिवार से बड़ी कोई दूसरी ताकत नहीं होती । इसकी खबर मेरे स्कूल में भी दी गई उस समय हमारी प्रिसिपल सिस्टर तृप्ति थीं उन्होनें और बाकी शिक्षकों ने और मेरे दोस्तो में भी मुझे काफी इमोशनली सपोर्ट किए।बीमारी के पता चलते तक काफी समय बीत गया था और मेरी स्थिति काफी खराब हो चुकी थी। अक्टूबर 2012 में जब हम मुुबई गए बीस दिनों के बाद इलाज शुरू हुआ। कीमोथैरेपी के 6 साईकिल निर्धारित किए गए, एक पीआईसीसी पाइप होती है, जिसे मेरी हाथ के नस से सीधे हृदय तक डाला गया और चार टाॅके लगाकर उसे फिट किया गया, उसी पीआईसीसी से कीमो दिया जाता था। एक साईकिल पांच दिनों तक लगातार चलता था फिर 21 दिनों के बाद ब्लड टेस्ट कराया जाता था और रिपोर्ट सही होने पर दूसरा साईकिल दिया जाता था।मैनें जितना आसान सोचा था इसका इलाज उतना आसान नहीं था। हर कैंसर का इलाज अलग अलग होता है मेरे कंैंसर के हिसाब से मुझे इलाज बताया गया था साथ ही इसके कीमो के 14 साईड इफेक्टस बताए गये थे। बाकी सारे साइड इफेक्टस जानकर मुझे उतना फर्क नहीं पड़ा मगर एक साईड इफेक्ट था हेयर फाॅल। मुझे बताया गया कि एक भी बाल नहीं बचेंगे। एक लड़की होने के नाते और वह भी एक ऐसी लड़की जिसके बाल घुटने तक लंबे थे मेरे लिए इस तकलीफ से गुजरना सबसे कठिन था। मैं बहुत रोती थी सिर्फ अपने बालों के लिए क्योंकि मैने अपने बालों में कभी कैंची तक नहीं चलवाई थी। मुझे आज भी याद है कि हमारे रूकने का धर्मशाला हाॅस्पिटल से वाकिंग डिसटेंस पर ही था और बीच में जितने भी मंदिर पड़ते थे मैं सारे मंदिरों में रूक रूक कर भगवान से बार बार इतना ही बोलती थी कि हे भगवान मेरे बाल मत झड़े। जब तक दूसरा कीमो शुरू हुआ तब तक मेरे सारे बल झड़ चुके थे और इस चीज ने मुझेेे बहुत कमजोर कर दिया था। जब मैं हाॅस्पिटल में एडमिट थी उसी दौरान मेरे बगल के बेड पर एक लड़की आई वो उम्र में मुझसे चार साल बड़ी थी, उसके पैर में केंसर था उसके भी लंबे और एकदम घने बाल थे। इसे देखकर मुझे अपने बालों के लिए बहुत खराब लगता था। जब एक दिन मैं सोकर उठी तब मैंेने देखा कि वो अपने बेड पर नहीं थी कुछ घंटे बाद उसे आॅपरेशन थिएटर से लाया गया, जब वह होश में आई तब वह बहुत जोर जोर सेरोने लगी मुझे पता चला कि उसके जिस पैर में केंसर था उस पैर को ही काट दिया गया है। इस बात ने मुझे भी अंदर से हिला दिया और जब मुझे एहसास हुआ कि मेरे तो बाल ही गए हैं, जो इलाज के बाद वापस भी आ जाएंगें। पर उसके तो पैर ही चले गए जो कभी भी वापस नहीं आएंगें। तब उसे देखकर मैने सीखा, दूसरों की परेशानियांे को जब हम समझते हैं, तब अपनी बड़ी से बड़ी परेशानी भी छोटी भी लगने लग जाती है।उस दिन के बाद मैं कभी भी नहीं रोई, पूरे इलाज के चलते तक मेरे चेहरे पर हमेशा मुस्कान रहती थी, और मेरी मुस्कुराहट देखकर डाॅक्टर नर्स अन्य स्टाॅफ भी खुश हो जाते थे। मेरे पूरे इलाज के दौरान में, मेरी मम्मी और पापा हम तीन लोग ही रहते थें। उस समय मुझे एहसास हुआ मां-बाप से ज्यादा प्यार दुनिया मंे आपको कोई दूसरा नहीं कर सकता, उनके लिए मेरे शब्द नहीं है मेरे पास। भले ही जीवन का वह बहुत खराब समय था मगर उस समय में मैंने अपने माॅ-बाप का जैसा प्यार महसूस किया है, वह शायद इस साधारण जीवन में कभी महसूस नहीं कर पाती,खैर जैसे जैसे इलाज चलता गया मेरा शनैः शनैैः शरीर कमज़ोर पड़ता गया। महिने-महीनों इलाज चला इस बीच कई बार स्थिति गंभीर भी हुई मगर आत्मबल कभी कम नहीं हुआ। सिर के बाल पूरी तरह झड़ चुके थे, ना भौं था ना ही आंखों में पलकें थीं। शरीर काला पड़कर पूरा का पूरा सूख चुका था। ना ही ठीक से चल फिर पाती थी और ना हीउठ-बैठ। रूप रंग सब जा चुका था शरीर में ताकत भी नहीं बची थी मगर तब भी आत्म बल कम नहीं हुआ क्यांेकि मुझे ठीक होना था। किसी भी बड़ी बीमारी के लिए जितनी जरूरी दवा है, जितनी जरूरी दुआ है, उससे कहीं भी ज्यादा जरूरी आत्मबल होता है। आत्म बल अगर मजबूत है,तो कोई भी परेशानी हो कैसी भी परेशानी हो आप कभी नहीं हारेगें। ऐसे ही कशमकश में आठ से ज्यादा महिने बीते और मेरा इलाज खत्म हो चुका था। फिर जब मैं वापस अपने घर लौटी तब मेरे लिए काफी कुछ नया था। मैं 11वीं में मैथ्स की स्टुडेंट थी और मेरा मैथ्स मेरा फेवरेट सब्जेक्ट भी था, पर मेरी स्थिति को देखते हुएडाॅक्टरों ने यह सलाह दिये रहे कि मैं कुछ सालों बाद अपनी पढ़ाई कंटिन्यू करूं। पर मैं अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ना चाहती थी इसलिए मैंने 12वीं की परीक्ष में काॅमर्स से दी। उस समय भी मेरी स्थिति बहुत खराब थी पर परीक्षा हाॅल तक मुझे पापा पकड़ कर लाते ले जाते थे और परीक्षा के बाद आॅटो में लिटाकर वापस घर लाते थे।12वीं तो मैने निकाल लिया पर काॅलेज बिना कोचिंग के निकालना मुश्किल था और उस समय कोचिग में ज्यादा देर तक बैठने की स्थिति मेरी नहीं थी।ऐसे में मैने फस्र्ट ईयर ड्राॅप किया और वक्त गुजरते गुजरते मैने फिलहाल बी.ए. और एम.ए. कंपलीट भी कर ली हूं। जब मेरा इलाज पूरा हुआ तब मेरे लिए सबसे चैंकान वाली बात थी समाज का मेरे प्रति नज़रिया। मुझे उस उमर में इस चीज की समझ नहीं थी कि अगर किसी लड़की को कोई बीमारी हो या हो रही हो समाज उसे किस नजर से देखता है। मुझे यह ताने सुनने मिलने शुरू हुए कि अब तेरे से शादी कौन करेगा, तेरे को जीवन भर अपने ही घर पर रहना है। मुझे यह बात अटपटी क्योंकि मेरी नजरमें तो यह था कि मैं ठीक हो गई हूं, यह सब मेरे को ऐसा क्यों बोल रहे हैं। समझ कम होने के कारण मैने इसका मतलब यह निकाला कि अब मैं अच्छी नहीं दिखती इस वजह से ये सब ऐसा बोल रहे हैं। अगर किसी अपने को आज़माना हो तो बुरे वक्त से अच्छा वक्त कोई दूसरा नहीं होता। मेरे जीवन मंे भी कोई था जो इस पूरे सफर में परछाई की तरह मेरे साथ था।बात तो होती थी हमारी, सब कुछ पता भी था उन्हें मेरी तबियत के बारे में मगर मैने कभी उन्हें यह नहीं बताया था कि मैें कैसी दिखने लगी हूं। यह होने के पहले जब हम मिलते थे तो मेरा रूपरंग सुंदर था पर लोगों की बातों ने मेरे दिमाग में ऐसा घर किया कि मुझे भी लगने लगा मुझे ऐसा देखकर वो भी मुझे छोड़ देगें फिर लगता था कि ये छुपाना भी ठीक नहीं है अगर मैं शादी के लायक नहीं हूं, तो उनको भी जीवन मंे आगे बढ़ना चाहिए। अपनी बदनसीबी और उनकी बेहतरी का ऐसा सोचविचार कर मैंने अपनी एक सहेली से कहा कि मुझे एक बार उनसे मिलना है, और हम मिले भीे उनके सामने मैंने अपना स्काॅर्फ उतारा और कहा देखो आप जिसको पसंद करते थे अब मैं वैसे नहीं दिखती हूं इसलिए अब आप भी अपनी जिंदगी के लिए आगे बढ़ो और मुझे छोड़ दो। उस समय मेरा पूरा शरीर कीमो की वजह से पूरा काला पड़ा था, सिर पर ना तो बाल थे ना ही भौं ही था और पलकों में एक भी बाल नहीं थे पूरा शरीर काला होकर सूख चुका था। पर उस वक्त इन्होंने जो कहा गुज़िश्ता सालों से उनके कहे बात का एक एक शब्द ता-जिंदगी मुझे याद रहेगी। उनके भी आॅखों में आंसू भरे थे थरथराते आवाज में उन्होने कहा कि तू जिंदा मेरे सामने खड़ी है वही बहुत है मेरे लिए, जिंदगी भर भी तू ऐसी दिखेगी तब भी तुझे मैं नहीं छोडंूगा। उन्होने जो भी कहा उसे निभाया भी है-उनका नाम है सत्येंद सिंह, छत्तीसगढ़ पुलिस में सब-इंसपेक्टर हैं फिलहाल ये कांकेर जिले में पोस्टेड हैं। समय बीतने के साथ मेरा रूपरंग संवर गया बाल भी पहले के जैसे हो गए हैं। ऐसा नहीं कि शादी के प्रस्ताव नहीं आए वो भी आए आए उनको भी और मेरे को भी मगर उस दिन उनके कही बात से मुझे कोई बेहतर लगा ही नहीं। समय बीतने के साथ ही घर वाले मान गए, ना उनको ना ही मेरे ससुराल में किसी को भी मेरी गुजरी बीमारी से कोई दिक्कत हुई, बहुत ही प्यार से मेरे ससुरालवालों ने भी मुझे स्वीकार किए, इसके बावजूद हम दोनों की जाति अलग-अलग है। तब भी धूमधाम से मेरी मम्मी-पापा ने और इनके मम्मी-पापा ने हमारी शादी करवाई। लेकिन शादी होने के बाद भी हमारी शादी लोगों को रास नहीं आई। ताने-बाने के साथ लोगों के बीच यह बातें भी होने लगीं शादी तो हो गई इनकी, पर संतान नहीं होगें। हालांकि मेरी तबियत हमेशा ही उपर नीचे होती रहती थी अलबत्ता इन बातों से मुझेे बहोत खराब भी लगता था। मेरी इस परेशानी को समझ कर सत्येंद्र कहा करते थे कि संतान नही होगें तो कोई बात नहीं मेरे साथ तू है इतना ही काफी है। हमने डाॅक्टरों को भी दिखाए तो डाॅक्टरों ने भी कहे कि चांसेस बहुंत कम है. लगभग इंपासिबल। मगर उपर वाले का हमें नियामत मिला उसका करिश्मा हुआ और तब जमाने के लोगों और डाॅक्टरों के असंभव बोल और सोच को ढेगा बताते हुए हमने हमारी मुहब्बत और इश्क को मुकम्मलात करने वाले अपने बेटें का नाम रखा है संभव तभी तो कुदरती दुनिया में सत्यमेव जयते, और मुहब्बत की दुनियां में इश्क मय जयते।


    मैं मनीष हूं, मेरी उमर तकरीबन 64 साल है। वर्ष 2014 में मेरी तीसरी और आखिरी बहन की शादी करने के बाद मैं पारिवारिक जिम्मदारियों से खुद को मुक्त मानने लगा। परंतु नियति को कुछ और मंजूर था। दिसंबर 2014 में ही मुझे अपनी धर्मपत्नी का बिगड़ते शारीरिक हालात के चलते जिला मुख्यालय के चिकित्सालय सहित रायपुर, नागपुर के अलगअलग चिकित्सालयों के गहन चिकित्सा कक्षों में लगातार जांच कराया और अंततः डाॅक्टरों ने मेरी पत्नी के दोनों किडनी को खराब होना डिक्लेयर्ड कर दिया गया। यह सब जानकार मुझे दिसबंर की ठंड में भी पसीना छूट गया लेकिन पत्नी को इस खबर से अंजान ही रखा रहा।इतने जगहों पर आने जाने और मेडिकल एक्साॅमिन, टेस्टिंग, दवाईयां आदि में रकम खर्च होते चले गए। आर्थिक बोझ और मानसिक यंत्रणा से हम पति पत्नी गुजरने लगे। किडनी प्रत्यारोपण में 15 से 20 लाख रूपए का इंतजाम रखने की डाॅक्टरों ने जरूरत बताए। इन सभी हालातों में मेरे मित्र बबूल शर्मा, किशन भाई, संजय भाई सहित परिवार के दीगर लोगों ने मेरा हौसला बढ़ाया और उनके उदारमना से आर्थिक मदद किए जाने के कारण ही मैं अपनी पत्नी को लेकर नाडियाड (गुजरात) पहुंच सका और यहां के एक अस्पताल मूलजी भाई पटेल यूरोलाॅजिकल हाॅस्पिटल में अपनी पत्नी के किडनी प्रत्यारोपण के लिए मैने खुद को प्रस्तुत कर दिया। लगातार तीन महिने तक परीक्षण दवाईयां करने के बाद मेरी एक किडनी मेरी पत्नी को प्रत्यारोपित करने में डाॅक्टरों को सफलता हासिल हुई और तब से आज साल 2023 तक मेरी संगिनी मेरे संग जीवन जी रही है। एक ही संतोष है कि मैं अपनी पत्नी का जीवन बचा लाया हूं। हालाॅकि तब से अब तक प्रत्येक तीन महिनों में मुझे अपनी पत्नी को लेकर इलाज अपडेट के लिए नियमित जाना आना कर रहा हूं और प्रत्येक ट्रीप में 55 से 60 हजार की रकम खर्च करनी पड़ती है। जबकि साल 2015 से फिलहाल तक 30 से अधिक ट्रीप हो चुका है। 90 साल से अधिक उम्र के मेरे पिता सहित हम दोनों उमरदराजी का पालन पोषण, इलाज, दवाईयो कं बंदोबस्त में घर की पुश्तैनी जायदाद आदि सब खत्म हो चुके हैं, दोस्तो और सहयोगियों के उधार का चुकाने में मुझे गुर्दादान से ज्यादा तकलीफ़ पीड़ादायी लगने के बावजूद मेरा इकलौता बेटा राहुल बहू रूचि सहित मैं और मेरा भाई सतीश जी जान से कारोबार करते हुए धीरे धीरे उधार की रकम कम करने लगे हैं, लेकिन मानसिक त्रास में कमी नहीं हैै। यद्यपि मेरी पत्नी इस बीमारी के शुरू से लेकर अब तक निशब्द है, निस्तब्ध भी नजर आती है, कुछ बोलती भी नहीं लेकिन मैं जानता हूं वो हम सब को अपना गुरूर ही मानती है और हम सब उसे मानते हैं अपने परिवार का फ़कर, अपने परिवार का गौरव और मेरे बगीचा की पुष्पा।






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